Nimesh Ji Ki Dairy : Yada-Kada / निमेष जी की डायरी: यदा-कदा
समाचार-पत्र पढ़ना आवश्यक है। सूचनाएँ मिलती हैं, लेकिन अब यह एक निरर्थक क्रिया प्रतीत होने लगी है। इन समाचार-पत्रों से मन ऊबने लगा है। समाचार-पत्र समाज को समस्याग्रस्त बनाने लगे हैं। टी०वी० भी कम नहीं है। विज्ञापनों की भरमार है। कथावाचकों और भविष्यवाणी करने वाले और करने वालियों के लटके-झटके समाज पर हावी हो चुके हैं। फीचर को छोड़ दें तो सभी समाचार-पत्रों में खबरों की कवरेज एक जैसी ही होती है। मीडिया ने अपने चंगुल में सबको जकड़ा है। जिसे चाहें और जब चांहें उठाएँ या उखाड़ फेंकें। हमारी राष्ट्रीय मानसिकता क्षेत्रवाद, भाषावाद और न जाने कितने अनर्थवादों से जुड़ने लगी है। समाज का अंतिम व्यक्ति हाशिए पर ढकेला जा चुका है। हम संवेदनारहित समाज में रहते हैं। दरिद्रनारायण जो गांधी जी के हृदय का हार था; जिसकी सेवा को विवेकानंद ने ईश्वर की आराधना कहा था, वह दरिद्रनारायण हमारी दरिंदगी के कारण दलिद्दर प्रसाद की हैसियत में है। सड़क पर एक नजर दौड़ाता हूँ तो सड़कों के नाम को नाम-पट्ट पर चार भाषाओं में लिखा पाता हूँ हिंदी, अंग्रेजी, गुरुमुखी और उर्दू । सड़क का तो बस एक ही नाम है, पर उसे चार भाषाओं में पढ़ने के लिए हमें क्यों बाध्य किया जाता है। हमारी दिल्ली में सर्वत्र सड़कों के नाम चार भाषाओं में लिखे जाते हैं। मुझे यह राष्ट्रीय स्तर पर सरकार की दुष्प्रवृत्ति का दिग्दर्शन लगता है। दर-दर भटकती गाएँ और छुट्टा सँड़ दिल्ली में निर्बाध घूमते फिरते हैं। गाएँ कड़े के ठेर में अपना राशन ढूँढ़ती हैं। इसी प्यारी दिल्ली में, सिविल लाइंस में, कूड़ाघर में जहाँ कूड़े का अंबार लगा होता है, किसी कुतिया ने बच्चे जने थे। झुंड के झुंड गाएँ यहाँ भोजन की तलाश में आती ही हैं। प्लास्टिक की थैलियों में, सब्जियों के छिलके, घर की बची रोटियाँ आदि लोग यहाँ डाल जाते हैं। यह गायों का भोजन है। असावधानीवश एक गाय ने प्लास्टिक की इन थैलियों के साथ कुतिया के नवजात बच्चे को अपना ग्रास बना डाला। इस घटना को वहाँ से गुजरते लोगों ने देखा। मुझे एक महिला चिकित्सक श्रीमती गंभीर ने बताया था कि अत्यंत आपातकालीन परिस्थिति में गर्भवती महिला को जब प्रसव न हो रहा हो, उस समय आक्सीटोन की सुई लगाते हैं। इससे पीड़ा तो बहुत होती है, पर बच्चा शीघ्र पैदा हो जाता है और प्रसूता के स्तनों में दूध उतर आता है। वह जहाँ रहती हैं, वहाँ दूधिए रहते हैं। इस पीड़ादायी सूई को दूधिए सुबह-शाम पहले गऊमाता को भोंकते हैं, फिर उसका दूध निकालते हैं। इस सूई को देखकर गाय काँप उठती है। कानूनन यह जुर्म है। एक बार तो ऐसा भी सुनने में आया था कि हमारे किसी लोकप्रिय जनप्रतिनिधि ने अपनी बदहजमी दूर करने के लिए पवित्र गोमाता का चारा खाया और जनता को पचाकर दिखा भी दिया। समाचार-पत्र कोई न कोई सनसनीखेज खबर हमें नित्य पढ़ाते हैं।
अगले दिन यह खबर बासी हो जाती है, पर नई खबर पाठकों की शिराओं में स्फुरण के लिए छपी तैयार मिलती है। मीडिया जिसे चाहे उठाए, जिसे चाहे गिराए, पर पाठकों को भी पता है, मीडिया दूध का धोया नहीं है। मैं तो प्रतिदिन की सनसनीखेज खबरों को बासी कढ़ी मानकर ही चलता हूँ। यह शुभ लक्षण नहीं है। अच्छी ख़बरें भी मीडिया ही देता है, पर एक अच्छी खबर को मीडिया जोर-शोर से हाईलाइट क्यों नहीं करता? समाज में सब कुछ बुरा नहीं है, पर मीडिया अच्छी खबरों पर ज्यादा तवज्जो नहीं देता । जो लोग बेटियों को पेट में ही मार रहे हैं, वही लोग सरस्वती-पूजा और लक्ष्मी-पूजा के लिए चंदा भी देते हैं। यह दोगलापन समाज को खोखला कर रहा है। एक सामाजिक संस्था की ओर से वृद्धजनों को सम्मानित किया जा रहा था। यह आज की ही घटना है। संस्थान की प्रधान विजयलक्ष्मी ने मुझे वहाँ बुलाया था। लॉटरी के द्वारा एक अतिवृद्ध महिला का जन्मदिन निकला था। मैं विशेष अतिथि था। वृद्धा ने जीवन में अपना पहला जन्मदिन आज मनाया था। उसे पता भी नहीं था कि उसकी जन्मतिथि क्या है, पर लॉटरी में नाम उसका निकला था। यह तय पाया गया कि जन्मदिन मनाया जाएगा, तिथि जो भी रही हो। महिला अतिवृद्ध थीं। केक काटने में मदद करनी पड़ी। संस्था की ओर से उपहार मेरे हाथों ही दिए जाने थे। मैंने पूछा, “माताजी, कितने बेटे-बेटियाँ हैं?” दो बेटे थे, एक को मरे कई वर्ष हो गए, दूसरा सरकारी मुलाजिम है। वह भावविह्वल थीं। समाज में वृद्धजनों का क्या हाल है, यह किसी से छिपा नहीं है। यही समाज अपने वृद्धजनों का सम्मान भी करता है। कम से कम आज की घटना तो प्रत्यक्ष है। यह एक शुभ लक्षण है। एक संन्यासी के लिए आदेश है कि जब माँ मिले तो झटपट श्रद्धापूर्वक प्रणाम करें और उनका आशीर्वाद ले। गत मोक्षदा एकादशी को मेरी जन्मदायिनी माँ गोलोकवासी हो गई थीं| आज इस वृद्ध को देखकर माँ स्मरण हो आईं। सबकी नजरों से बचते-बचाते मैंने उनके चरणों में सिर झुकाया, चरण स्पर्श किया।
डायरी एक अंतरंगता है। मैं समझता हूँ, इसमें भावप्रवणता का प्राधान्य होता हैं। इससे पीड़ा तो बहुत होती है, पर बच्चा शीघ्र पैदा हो जाता है और प्रसूता के स्तनों में दूध उत्तर आता है। वह जहाँ रहती हैं, वहाँ दूधिए रहते हैं। इस पीड़ादायी सूई को दूधिए सुबह-शाम पहले गऊमाता को भोंकते हैं, फिर उसका दूध निकालते हैं। इस सूई को देखकर गाय काँप उठती है। कानूनन यह जुर्म है। एक बार तो ऐसा भी सुनने में आया था कि हमारे किसी लोकप्रिय जनप्रतिनिधि ने अपनी बदहजमी दूर करने के लिए पंवित्र गोमाता कां चारा खाया और जनता को पचाकर दिखा भी दिया। समाचार-पत्र कोई न कोई सनसनीखेज खबर हमें नित्य पढ़ाते हैं।
अगले दिन यह खबर बासी हो जाती है, पर नई खबर पाठकों की शिराओं में स्फुरण के लिए छपी तैयार मिलती है। मीडिया जिसे चाहे उठाए, जिसे चाहे गिराए, पर पाठकों को भी पता है, मीडिया दूध का धोया नहीं है। मैं तो प्रतिदिन की सनसनीखेज खबरों को बासी कढ़ी मानकर ही चलता हूँ। यह शुभ लक्षण नहीं है। अच्छी खबरें भी मीडिया ही देता है, पर एक अच्छी खबर को मीडिया जोर-शोर से हाईलाइट क्यों नहीं करता? समाज में सब कुछ बुरा नहीं है, पर मीडिया अच्छी खबरों है। मुझसे जो बन पड़ा, लिखा। वैसे मैं डायरी लिखता जरूर हूँ, पर उसे सँभालकर रखना नहीं आया। लगभग चालीस पृष्ठ कहीं खो गए। वे हस्तलिखित थे। कहाँ वे मर-बिला गए, नहीं मालूम। पहले भी ऐसा हो चुका है। मेरी यायावरी मुझे जाने कहाँ-कहाँ नहीं ले गई। यह आज भी यथावत् है और बेहद प्रिय है।
-रमेशचन्द्र द्विवेदी
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