Nij Path Ka Avichal Panthi / निज पथ का अविचल पंथी!
जीवन के 85 वसंत पूरे कर लिए। इतने लंबे सफर के बाद इस मोड़ पर खड़े होकर पीछे देखना और उस पर सोचना बहुत रोमांचक होता है। कुछ साफ-सीधी सड़कें थीं, कुछ पथरीली-कंटीली राहें थीं, कुछ टूटी पगडंडियां थीं। कहीं कभी किसी के पैरों के निशान भी नहीं थे, शायद वहां पहले कभी कोई चला भी न था, वहां भी राह बनाई और चलने का साहस किया। फिसला भी, गिरा भी, मूल्य भी चुकाया, पर चलता रहा। नहीं, मैं नहीं चला, मैं कौन होता हूं चलने वाला ऐसे रास्तों पर? वह प्रेरणा, वह सामर्थ्य-सचमुच प्रभु ने ही दिया था।
दसवीं पास करने के बाद 17 वर्ष की आयु में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचारक बन गया। 1953 में 19 वर्ष की आयु में भारतीय जनसंघ द्वारा डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में शुरू कश्मीर सत्याग्रह में 8 मास जेल में रहा। तब से चला तो चलता ही रहा। न कहीं रुका, न कभी थका, न कहीं झुका। व्यस्त ही नहीं, कभी-कभी अस्त-व्यस्त भी हो गया। जीवन के आर्थिक संघर्षों ने निराश-हताश भी किया। परंतु चलता रहा, लड़ता रहा और आगे बढ़ता रहा। 1952 में स्वतंत्र भारत के पहले लोकसभा के चुनाव में कार्यकर्ता के रूप में भाग लिया। उसके बाद हर चुनाव या लड़ता रहा या लड़वाता रहा। सारा जीवन यों ही बीता कभी सड़क पर, कभी रेल में, कभी जेल में और कभी चुनाव की धक्कमपेल में।
सार्वजनिक जीवन शुरू किया, लोकतंत्र की सबसे नीचे की पहली सीढ़ी पंचायत से। 1964 में अपने गांव ‘गढ़जमूला’ की पंचायत का पंच बना। उसके बाद अपनी ‘भवारना पंचायत समिति’का सदस्य बना, फिर ‘कांगड़ा जिला परिषद्’का उपाध्यक्ष बना, कुछ वर्ष बाद जिला परिषद् का अध्यक्ष बना। 1972 में हिमाचल विधानसभा का विधायक चुना गया। 1977 में हिमाचल का मुख्यमंत्री बना। प्रभुकृपा से मैं प्रदेश में ही नहीं रुका। चार बार लोकसभा, एक बार राज्यसभा के लिए भी चुना गया। फिर केंद्र में मंत्री बना। तभी एक संसदीय शिष्टमंडल में ‘राष्ट्रसंघ सभा’ (U.N.O.) में भाग लेने ‘न्यूयॉर्क’अमरीका गया। विश्व की सबसे बड़ी संसद में तीन बार भाषण करने का अवसर भी मिला। पंचायत से संसद और फिर राष्ट्रसंघ तक पहुंचा। आज सोचता हूं, मुझ पर कितनी बड़ी कृपा रही प्रभु की, जनता की, परिवार की और मेरी पार्टी की।
इतने व्यस्त जीवन में भी हिंदी की 22 पुस्तकें लिख सका-यह सोचकर आज स्वयं हैरानी होती है। एक चमत्कार ही लगता है। सच कहता हूं इतना सब कुछ मित्रों, परिवार और प्रभुकृपा के बिना नहीं हो सकता था। 1964 में संतोष से मेरा विवाह हुआ। उसके बाद के सारे जीवन संघर्षों में मैं अकेला नहीं रहा। उसके संबंध में बस, इतना ही कहना चाहूंगा कि उसके बिना मैं वह न होता, जो आज हूं।
मैंने इसी वर्ष 56 वर्ष की चुनाव की राजनीति को ‘अलविदा’कह दिया। अब राजनीति की सक्रियता भी कम करूंगा और अपना पूरा समय ‘विवेकानंद सेवा केंद्र’के अधूरे कामों को पूरा करने में ही लगाऊंगा।
मैं अपने आपको बहुत भाग्यशाली समझता हूं क्योंकि आज से 67 वर्ष पहले जब मैं अपनी पार्टी भारतीय जनसंघ में आया तो पार्टी के पास कुछ भी नहीं था। हमें मिलती थीं-पुलिस की लाठियां, जेलें और चुनाव में हार। शुरू में जमानतें तक जब्त होती थीं। आज जब मैं चुनाव की राजनीति छोड़ रहा हूं तो मेरी पार्टी विश्व की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है और दिल्ली से लेकर शिमला तक मेरी पार्टी की सरकार है।
मैं
इसलिए भी भाग्यशाली हूं कि राजनीति के इतने लंबे सफर के बाद
सरकारी पदों का दायित्व निभाते हुए,
राजनीति की जो सफेद
चादर पार्टी ने मुझे
दी थी, उसे उसी प्रकार बिना दाग-धब्बे के ही नहीं अपितु कुछ और अधिक
उजला करने का प्रयत्न करते
हुए लौटा रहा हूं। संत कबीर के शब्दों में—
दास कबीर जतन से ओढ़ी
जस की तस धर दीनी चदरिया
मेरे जीवन के सफर की अधूरी कहानी तो कई बार कही गई। मेरी पुस्तकों ‘राजनीति की शतरंज’और ‘दीवार के उस पार’में भी छपी। एक दैनिक पत्र ने धारावाहिक प्रकाशित भी किया था।
मैंने अपना जीवन जिया तो अपने आदर्शों पर ही जिया। जीवन के अंतिम क्षण तक इसी प्रकार चलते रहने का संकल्प है। सबके संबंध में बहुत कुछ लिखा, अब अपने संबंध में स्वयं ही लिखने बैठा हूं।
मैंने एक लेखक के रूप में साहित्य जगत् की सेवा की है। राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में भी पिछले 67 वर्षों में समाज की सेवा करने का प्रयत्न किया है। चुनाव की राजनीति छोड़ने के बाद अब मैं पहले लेखक हूं उसके बाद राजनेता। इसलिए अब लेखक की ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’मेरा अधिकार है।
जेल जीवन के संबंध में कुछ विस्तार से लिखा गया है। जेलयात्रा की अवधि यद्यपि दो वर्ष और तीन मास है, परंतु उस जेल जीवन की उपलब्धि इतनी अधिक और महत्त्वपूर्ण है कि अधिक लिखना आवश्यक था। जेल जाने का सौभाग्य न मिलता तो कई दृष्टियों से मैं कुछ अधूरा रहता। कहीं-कहीं पाठकों को पुनरावृत्ति भी लगेगी। जेल जीवन के एकांत क्षणों में बीते जीवन को याद करके भी कुछ लिखा गया है। पर कहीं-कहीं उसका संदर्भ अलग है और फिर जेल में बैठकर लिखे हुए का ‘अंदाजे-बयां’भी और है।
मैंने अपने जीवन को केंद्र बनाकर घटनाओं का वर्णन नहीं किया अपितु जीवन की उल्लेखनीय उपलब्धियों व घटनाओं को केंद्र बनाकर, छोटे अध्यायों में जीवन का वर्णन किया है। पाठकों को लग सकता है आत्मकथा की शैली लीक से कुछ हटकर है। फिर भी पाठकों को समर्पित है क्योंकि मेरा जीवन भी तो लीक से हटकर ही बीता है।
मैं पार्टी की स्थापना के प्रारंभ से लेकर आज तक का सहयात्री हूं। मेरे आरंभ के जीवन की कहानी के साथ पार्टी के आरंभ का कुछ इतिहास भी कहा गया है।
आत्मकथा लिख ली। पुस्तक का नाम सोचने लगा। परिवार व कुछ मित्रों से सलाह की। सूची बन गई पर कोई नाम अंतिम नहीं कर सका। मेरी बड़ी बेटी इंदु दुबई में है। आत्मकथा का अंग्रेजी अनुवाद कर रही है। संतोष ने इंदु से नाम पूछा। उसने दूसरे ही दिन मेरी ही एक कविता की प्रथम पंक्ति को पुस्तक का नाम रखने का सुझाव दिया।
पुस्तक निकाली। कविता
देखी। बहुत कुछ याद आया और वे यादें मेरी आंखों को सजल
करने लगीं। आज से
67 साल पहले 1953 में कश्मीर आंदोलन में 19 वर्ष की आयु
में सत्याग्रह किया। छोटी आयु के कैदियों को हिसार जेल भेज दिया गया। कांगड़ा से पहली
बार बाहर गया। जून का महीना
और हिसार की आग उगलती गरमी। जाते ही आदेश
हुआ कि जेल के कपड़े
पहनो। हमने इनकार कर दिया।
घर के कपड़े पहनने नहीं दिए गए। केवल बनियान व कच्छे
में हम बाल सत्याग्रहियों ने जेल
में एक अपराधी कैदी के रूप
में रहने से इनकार
कर दिया। भूख हड़ताल कर दी।
तीन दिन के भूखे
सत्याग्रहियों की खूब पिटाई हुई। रात को छोटी
अलग कोठरियों में बंद कर दिया
गया। आज भी याद
आती है वह रात
तो कांप जाता हूं। चार दिन के संघर्ष के बाद हमने अपनी मांगें मनवाईं। उन्हीं दिनों यह कविता
लिखी गई थी। मुझे प्रसन्नता है, उस संघर्ष में मेरे बालमन ने इस कविता में जो संकल्प किया
उसे मैं आज तक निभा रहा हूं। 67 वर्ष पहले लिखी, उसी कविता की प्रथम
पंक्ति मेरी आत्मकथा का शीर्षक बनी।
पढ़िए आप भी वह कविता—
मैं निज पथ का अविचल पंथी!
मैं
निज पथ का अविचल
पंथी
नहीं
रुकूंगा, नहीं झुकूंगा।
आंधी-झंझा-तूफानों में
मिटते-लुटते अरमानों में
बीहड़
पथ की दुर्गम राहें
घायल
दिल की जख्मी आहें
बिजली
कड़के...वर्षा बरसे...पग आगे
ही सदा धरूंगा...
बेचैन
हृदय की धड़कन में
मासूम
मुखों की तड़पन में
जब मृत्यु तांडव रचती हो
मानवता भी सिर धुनती हो
चुक
जाए जब सबका साहस...
मैं
तब भी डटा रहूंगा...
आत्मकथा लिखने का कई बार प्रयत्न किया। सार्वजनिक जीवन की व्यस्तता के कारण लिख न सका। इस बार 12 सितंबर, 2019 को अपने 86वें जन्मदिन पर यह संकल्प किया कि अब 13 सितंबर से इस अधूरे काम को पूरा करने के लिए पूरी शक्ति से लग जाऊंगा। कुछ दिन पहले से सबको बता दिया कि 13 सितंबर से प्रातः 9 से 12 बजे तक मैं किसी एकांत में यह लेखन कार्य करूंगा। उसके बाद ही कार्यालय में मिलूंगा।
आज 13 सितंबर है प्रातः के 9 बजे हैं। मैं घर के एकांत में बिलकुल अकेला हूं, अपने बीते जीवन की स्मृतियों को संजोने में तल्लीन...
85 वर्ष का इतना
लंबा सफर...इतना सफल जीवन...यह सब प्रभुकृपा से ही संभव हुआ। प्रणाम करता हूं परमेश्वर के चरणों
में। अपने परिवार, मित्रों, जनता एवं पार्टी का भी आभार करता हूं-सहयोग, प्यार और स्नेह
के लिए।
-शान्ता कुमार
यामिनी परिसर,
पालमपुर
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